हिन्दी साहित्यनामा
भाषा चेतना की सहज अभिव्यक्ति है, जिसे साहित्य द्वारा समझा ही नहीं जा सकता है; बल्कि भाषा-साहित्य द्वारा समाज को एक उन्नयन दिशा की ओर प्रशस्त भी किया जा सकता है ।
Wednesday, October 06, 2021
प्रेम भरी पाती
Friday, September 17, 2021
राम भगवा नहीं भगवान हैं
Tuesday, September 14, 2021
मैं हिन्दी का खड़ी पाई हूँ
Sunday, December 06, 2020
कवि अभ्यागत की दस कविताएं
शीर्षक : ले चलो नदी
ले चलो नदी!
मुझे अपनी धारा में
बहाकर उस सभ्यता की ओर
उस बस्ती में
जहाँ आदमी अपनी सामाजिकता
नैतिक सिद्धांत तथा आदर्श को
बोझ समझकर ढ़ोता ना हो
स्वार्थ की अग्नि
जहाँ निर्वैयक्तिकता को
जलाती ना हो
कहो नदी!
मुझे ले चलोगी
उस बस्ती में
मैं थक गया हूँ
इस बस्ती के लोगों से
उनके झूठ के
इस दिखावे से
हे नदी!
क्या तुम मुझे अपनी
इस कृपा का पात्र बनाओंगी ।
शीर्षक : सुनों सीता
सुनों सीता!
माना की तुम रामायण में
श्री राम की नायिका थी
पर, एक नायिका और भी थी
जिसे तुम्हारी कुटिल माया
और, श्री राम का पत्नी प्रेम ने
उस कान्ता नायिका को कभी भी
नेपथ्य से पर्दे पर
आने का अवसर नहीं दिया
वह जब भी आना चाही
किसी-ना-किसी शर्तों में फाँस
उसे लोगों के सामने आने से
रोकने की हर संभव कोशिश की गई
तुम्हें शायद भय था
कहीं मेरी प्रसिद्धि ना छीन ले
कहीं मेरी लोकप्रियता के
दो हिस्से ना कर दे
इसलिए, तो तुम पूरी रामायण
आँसू बहा लोगों की संवेदना-कोष
अपने पर खर्च करवाती रही
क्योंकि, आँसू किसी की संवेदना को
अधिग्रहित करने का
सबसे अच्छा मार्ग है
शायद यही वजह रही होगी
कि तुमने, उसे ना रोने का संकल्प
बड़ी हीं चातुर्य के साथ
उसके प्रियतम से दिलवा दी होगी ।
3. शीर्षक : सृष्टि
देख रही हो सृष्टि!
कैसे यह दीर्घ पेड़
अर्रा कर जमीन पर
गिरा पड़ा है
ठीक ऐसे हीं एक दिन
हम मानव भी
अर्रा कर गिर जाएँगे
साँसे टूट कर
छींटक जाएँगी हाथों से
जो कुछ भी है मुठ्ठी में आज
वह सब मिट्टी हो जाएँगी
बची रह जाओगी केवल तुम
फिर से, शिथिल जीवन को
देने को नूतन गति
तुम कल भी थी
तुम आज भी हो
और ना जाने तुम
कितने सालों से
इसी तरह हमारे शिथिल जीवन को
हजार-हजार बार गति देने को
कटिबद्ध जीते आ रही हो ।
4. शीर्षक : भूखे आदमी की नींद में
एक भूखे आदमी की नींद में
सहसा एक श्वेत घोड़ा
दौड़ने लग जाता है
और, वह दौड़ते-दौड़ते
एक किसान के खेत में
अचानक से घुस जाता है
हरे-भरे खेत और
लहलहाते बालियों की गंध
उसके खुरों से उड़ कर
उस आदमी की नींद तक
धीरे-धीरे पहुँचती है
और, आदमी नींद में कुलबुलाने लगता है
गेहूँ की गंध
बाजरे की गंध
मक्के की गंध
सरसों, अरहर, चना, चौराई आदि
और, ना जाने ऐसे कितने
गंध की मिठास
वह खींचने लग जाता है अपने भीतर
जैसे खाने के उपरांत
कोई प्लेट में रखी गर्म चाय
खींचता है अपने भीतर ।
5. शीर्षक : शहर में रात
इस शहर में रात
अक्सर देर से होती है
देर से लोग खाना खाते हैं
और, देर से निकल पड़ते हैं
सड़कों पर दुधिया रोशनी के बीच
खम्भों पर लटकती
सन्नाटे को धुएँ में उड़ाते
सिगरेट की आग को झारते हुए
एक लम्बी बहस की दिशा में
विषय कुछ भी हो सकता है
जब तक हाथों में सिगरेट है
बहस जारी रहती है
घरों की बत्ती बुझा दी जाती है
और, गली की आखिरी छोर पर
खड़ा नगरपालिका का
भकभकाता एकमात्र ट्यूब लाइट
जलता रहता है रात भर अकेले में
जब तक शहर में रात
नहीं हो जाती
रात होते हीं वह भी
भकभकाना बंद कर देता है
और शुरू हो जाता है रात भर
कुत्ते का भोंकना
झिंगुर की कीर-कीर
बहादुर की लाठी का ठक-ठक ।
6. शीर्षक : उदासी
जब तक यह उदासी
छाई रहेगी
छाया रहेगा एक अंधेरा
आकंठमग्न में डूबा
कीरी बनकर खाता रहेगा
भीतर का अन्न-जल भंडार
और, ना हीं फेंकने देगा
आशा की पचकियाँ हीं
जरा सोचों पथिक
फिर, कुटज कौन खिलाएँगा
फिर, कैसे उचाट ख़ालीपन में
उतरेगा वसंत
तुमने देखकर भी
नहीं देखा है कभी
उसर भूमि पर
शैवालों का पनप-ना
या, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण
के विपरीत, कब देखा है
नदी का बहना
निकलो पथिक इन लोककथाओं से
यह लोककथा की उदासी है
इसे लोककथाओं में हीं रहने दो
मत सजाओं तुम इसे
अपने मन की दीवारों पर ।
7. शीर्षक : बाल मजदूर
वह नन्हा-सा मजदूर
जिसे देखा था मैंने
'मुखिया जी' नाम का
एक भोजनालय पर
जूठे बर्त्तनों के बीच
कुछ गुमसुम-सा
आपना निरवत्व लिए हुए
निर्विकार बैठा किसी का जूठन
कर कमलों से मल रहा था
हाँ, हाँ, मल रहा था
कभी-कभी दृष्टि को उठा
अपना बचपन हाँ-हाँ अपना बचपन
आते-जाते हर पथिक में
ढूँढ रहा था-ढूँढ रहा था
और थक-हार कर पुनः
राख लगी अपनी हथेली देखने लगता
मानों अपना भाग्य पढ़ रहा हो
और, बुदबुदाते हुए मन में
ईश्वर को बार-बार कोसता
तो, कभी अपनी विवशता पर
खुद ही झल्ला उठता था
वह विशुद्ध मजदूर
जिसका अपना कोई नाम नहीं था
वह समाज का जूठन उठाए
'बाल मजदूर' कहलाता फिरता था ।
8. शीर्षक : मैं लौटा हूँ
मैं लौटा हूँ
अभी-अभी
बुद्ध की अकड़ी देह
सीधी कर के ।
मैं लौटा हूँ
अभी-अभी
कपिलवस्तुऔर श्रावस्ती से
वहाँ एक भी
बुद्ध का प्रतिक या स्मृति चिह्न
मुझे नहीं मिला देखने को
और, ना हीं बुद्ध को
वहाँ कोई जानता है ।
मैं लौटा हूँ
अभी-अभी
बुद्ध का ज्ञान
किसी नदी-नाले में
विसर्जित होता हुआ देख ।
मैं लौटा हूँ
अभी-अभी
अपने पीठ पर
बुद्ध का दुःख लादे हुए ।
9 . शीर्षक : एक दलित लड़की का प्रश्न
वह चुप थी
मैं भी चुप खड़ा
उसी की ओर देख रहा था ।
वह सहसा किसी प्रश्न की भाँति
एक पूरे वाक्य सहित हिली
और, फिर अचानक से
एकदम शांत हो गई ।
पर वाक्य अब भी
हिल रहे थे
प्रश्न अब भी
वाक्य के अंत में
एक प्रश्न बना हुआ था ।
यह प्रश्न उस दलित लड़की का था
जो, एक दूध मुँहे बालक
नन्नूहा की माँ भी थी
और, नन्नूहा की बड़ी बहन भी
पर, प्रश्न तो यह है
कि, नन्नूहा का पिता कौन है ?
वह सामने क्यूँ नहीं आता ?
और, नन्नूहा की माँ की हत्या
आखिर, में किसने की ?
10 . शीर्षक : बनारस
पूछता है
मणिकर्णिका घाट
का पानी
पूछती है
दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियाँ
पूछता है काशी का शंखनाद
पूछती है
बाबा विश्वनाथ मंदिर की
ऊँची-ऊँची स्वर्ण गुम्बदें ।
घण्टों की टन-टन
संध्या-आरती का धूप-दीप
असंख्य मोक्ष प्राप्त आत्माएँ
सकरी-आड़ी-तिरछी
बनारस की गलियों से
उसकी, ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं से
कबीर क्यूँ कूच कर गए ?
अपनी फकीरी का झोला उठाए
मोक्षदायिनी नगरी बनारस से
और जा बसे
किंवदंतियों की नगरी
मगहर में ।
बनारस हाँ-हाँ बनारस
शिव की नगरी बनारस
कवि केदारनाथ सिंह की कविता वाला
एक टाँग पर खड़ा बनारस ।