धर्म के आक़ा
कठमुल्ला हो या पंडा
नाम बदल लेने से
चरित्र नहीं बदलता
ये धर्म के रसूख़दार हैं
धर्म की कट्टरता का लिहाफ़ ओढ़ते हैं
और, अपने आचरण के दोहरेपन से
परम्परा और संस्कृति का गुण गान गाते हैं
और, हमारी शिराओं में
शनैः - शनैः भरते जाते हैं दुराग्रह
ताकि, वह उच्छृंखल हो सकें
हमारी बौद्धिक और वैचारिक चेतना को
कैद करने के लिए
और, उसमें समाहित कर सके
सम्प्रदायिक विद्वेष और उग्रवाद
ताकि, हम सोचने और जीने के प्रश्न पर
अपने ही मध्य
एक दरार, एक खाई
बनाये रख सकें
और वह, काठ के मनकों की माला फेरते हुए
कहला सकें धर्म के आक़ा ।
- अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
युवा कवि, कथाकार एंव नाटककार
डेहरी आन सोन, रोहतास (बिहार)
No comments:
Post a Comment