Sunday, December 06, 2020

कवि अभ्यागत की दस कविताएं




  1. शीर्षक  : ले चलो नदी 



ले चलो नदी!

मुझे अपनी धारा में 

बहाकर उस सभ्यता की ओर 

उस बस्ती में 

जहाँ आदमी अपनी सामाजिकता

नैतिक सिद्धांत तथा आदर्श को 

बोझ समझकर ढ़ोता ना हो 

स्वार्थ की अग्नि 

जहाँ निर्वैयक्तिकता को 

जलाती ना हो 

कहो नदी!

मुझे ले चलोगी 

उस बस्ती में 

मैं थक गया हूँ 

इस बस्ती के लोगों से 

उनके झूठ के

इस दिखावे से 

हे नदी!

क्या तुम मुझे अपनी 

इस कृपा का पात्र बनाओंगी ।



  1. शीर्षक  : सुनों सीता 




सुनों सीता!

माना की तुम रामायण में 

श्री राम की नायिका थी 

पर, एक नायिका और भी थी 

जिसे तुम्हारी कुटिल माया 

और, श्री राम का पत्नी प्रेम ने

उस कान्ता नायिका को कभी भी

नेपथ्य से पर्दे पर 

आने का अवसर नहीं दिया 

वह जब भी आना चाही 

किसी-ना-किसी शर्तों में फाँस 

उसे लोगों के सामने आने से 

रोकने की हर संभव कोशिश की गई 

तुम्हें शायद भय था 

कहीं मेरी प्रसिद्धि ना छीन ले 

कहीं मेरी लोकप्रियता के 

दो हिस्से ना कर दे 

इसलिए, तो तुम पूरी रामायण 

आँसू बहा लोगों की संवेदना-कोष

अपने पर खर्च करवाती रही

क्योंकि, आँसू किसी की संवेदना को

अधिग्रहित करने का

सबसे अच्छा मार्ग है  

शायद यही वजह रही होगी

कि तुमने, उसे ना रोने का संकल्प 

बड़ी हीं चातुर्य के साथ 

उसके प्रियतम से दिलवा दी होगी ।



          3.   शीर्षक  :  सृष्टि 



देख रही हो सृष्टि!

कैसे यह दीर्घ पेड़ 

अर्रा कर जमीन पर 

गिरा पड़ा है 

ठीक ऐसे हीं एक दिन 

हम मानव भी 

अर्रा कर गिर जाएँगे 

साँसे टूट कर

छींटक जाएँगी हाथों से 

जो कुछ भी है मुठ्ठी में आज 

वह सब मिट्टी हो जाएँगी 

बची रह जाओगी केवल तुम 

फिर से, शिथिल जीवन को 

देने को नूतन गति 

तुम कल भी थी 

तुम आज भी हो 

और ना जाने तुम 

कितने सालों से 

इसी तरह हमारे शिथिल जीवन को 

हजार-हजार बार गति देने को 

कटिबद्ध जीते आ रही हो  ।



      4.   शीर्षक  :  भूखे आदमी की नींद में 



एक भूखे आदमी की नींद में 

सहसा एक श्वेत घोड़ा 

दौड़ने लग जाता है 

और, वह दौड़ते-दौड़ते 

एक किसान के खेत में 

अचानक से घुस जाता है 

हरे-भरे खेत और 

लहलहाते बालियों की गंध 

उसके खुरों से उड़ कर 

उस आदमी की नींद तक

धीरे-धीरे पहुँचती है 

और, आदमी नींद में कुलबुलाने लगता है

गेहूँ की गंध 

बाजरे की गंध 

मक्के की गंध

सरसों, अरहर, चना, चौराई आदि

और, ना जाने ऐसे कितने 

गंध की मिठास

वह खींचने लग जाता है अपने भीतर

जैसे खाने के उपरांत 

कोई प्लेट में रखी गर्म चाय

खींचता है अपने भीतर  ।



          5.  शीर्षक  :  शहर में रात 



इस शहर में रात 

अक्सर देर से होती है 

देर से लोग खाना खाते हैं 

और, देर से निकल पड़ते हैं 

सड़कों पर दुधिया रोशनी के बीच 

खम्भों पर लटकती 

सन्नाटे को धुएँ में उड़ाते 

सिगरेट की आग को झारते हुए 

एक लम्बी बहस की दिशा में 

विषय कुछ भी हो सकता है 

जब तक हाथों में सिगरेट है 

बहस जारी रहती है 

घरों की बत्ती बुझा दी जाती है 

और, गली की आखिरी छोर पर 

खड़ा नगरपालिका का 

भकभकाता एकमात्र ट्यूब लाइट 

जलता रहता है रात भर अकेले में

जब तक शहर में रात 

नहीं हो जाती 

रात होते हीं वह भी 

भकभकाना बंद कर देता है 

और शुरू हो जाता है रात भर 

कुत्ते का भोंकना 

झिंगुर की कीर-कीर

बहादुर की लाठी का ठक-ठक  ।



           6.  शीर्षक   :  उदासी 



जब तक यह उदासी 

छाई रहेगी 

छाया रहेगा एक अंधेरा 

आकंठमग्न में डूबा 

कीरी बनकर खाता रहेगा

भीतर का अन्न-जल भंडार 

और, ना हीं फेंकने देगा 

आशा की पचकियाँ हीं 

जरा सोचों पथिक 

फिर, कुटज कौन खिलाएँगा 

फिर, कैसे उचाट ख़ालीपन में 

उतरेगा वसंत 

तुमने देखकर भी

नहीं देखा है कभी 

उसर भूमि पर 

शैवालों का पनप-ना 

या, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण 

के विपरीत, कब देखा है 

नदी का बहना

निकलो पथिक इन लोककथाओं से

यह लोककथा की उदासी है 

इसे लोककथाओं में हीं रहने दो 

मत सजाओं तुम इसे

अपने मन की दीवारों पर  ।


7.  शीर्षक  : बाल मजदूर 


वह नन्हा-सा मजदूर 

जिसे देखा था मैंने 

'मुखिया जी' नाम का 

एक भोजनालय पर

जूठे बर्त्तनों के बीच 

कुछ गुमसुम-सा

आपना निरवत्व लिए हुए 

निर्विकार बैठा किसी का जूठन

कर कमलों से मल रहा था 

हाँ, हाँ, मल रहा था 

कभी-कभी दृष्टि को उठा 

अपना बचपन हाँ-हाँ अपना बचपन 

आते-जाते हर पथिक में 

ढूँढ रहा था-ढूँढ रहा था 

और थक-हार कर पुनः 

राख लगी अपनी हथेली देखने लगता 

मानों अपना भाग्य पढ़ रहा हो

और, बुदबुदाते हुए मन में 

ईश्वर को बार-बार कोसता 

तो, कभी अपनी विवशता पर 

खुद ही झल्ला उठता था 

वह विशुद्ध मजदूर 


जिसका अपना कोई नाम नहीं था 

वह समाज का जूठन उठाए 

'बाल मजदूर' कहलाता फिरता था  ।



8.  शीर्षक  : मैं लौटा हूँ


मैं लौटा हूँ

अभी-अभी

बुद्ध की अकड़ी देह 

सीधी कर के  ।


मैं लौटा हूँ 

अभी-अभी

कपिलवस्तुऔर श्रावस्ती से 

वहाँ एक भी 

बुद्ध का प्रतिक या स्मृति चिह्न 

मुझे नहीं मिला देखने को 

और,  ना हीं बुद्ध को 

वहाँ कोई जानता है  ।


मैं लौटा हूँ 

अभी-अभी 

बुद्ध का ज्ञान 

किसी नदी-नाले में

विसर्जित होता हुआ देख  ।


मैं लौटा हूँ 

अभी-अभी

अपने पीठ पर 

बुद्ध का दुःख लादे हुए  ।


9 . शीर्षक  : एक दलित लड़की का प्रश्न 


वह चुप थी 

मैं भी चुप खड़ा 

उसी की ओर देख रहा था  ।


वह सहसा किसी प्रश्न की भाँति 

एक पूरे वाक्य सहित हिली 

और,  फिर अचानक से 

एकदम शांत हो गई  ।


पर वाक्य अब भी 

हिल रहे थे 

प्रश्न अब भी 

वाक्य के अंत में 

एक प्रश्न बना हुआ था  ।


यह प्रश्न उस दलित लड़की का था 

जो, एक दूध मुँहे बालक 

नन्नूहा की माँ भी थी 

और, नन्नूहा की बड़ी बहन भी 

पर, प्रश्न तो यह है 

कि, नन्नूहा का पिता कौन है  ?

वह सामने क्यूँ नहीं आता  ?

और,  नन्नूहा की माँ की हत्या 

आखिर,  में किसने की  ?


10 . शीर्षक  : बनारस 


पूछता है 

मणिकर्णिका घाट

का पानी 

पूछती है 

दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियाँ 

पूछता है काशी का शंखनाद 

पूछती है 

बाबा विश्वनाथ मंदिर की

ऊँची-ऊँची स्वर्ण गुम्बदें  ।



घण्टों की टन-टन

संध्या-आरती का धूप-दीप

असंख्य मोक्ष प्राप्त आत्माएँ

सकरी-आड़ी-तिरछी

बनारस की गलियों से 

उसकी,  ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं से 

कबीर क्यूँ कूच कर गए  ?

अपनी फकीरी का झोला उठाए 

मोक्षदायिनी नगरी बनारस से 

और जा बसे 

किंवदंतियों की नगरी 

मगहर में  ।



बनारस हाँ-हाँ बनारस 

शिव की नगरी बनारस 

कवि केदारनाथ सिंह की कविता वाला 

एक टाँग पर खड़ा बनारस  ।



-अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'




Sunday, July 19, 2020

'काव्य कुसुमाकर' (संयुक्त काव्य संग्रह) पुस्तक का कवि परिचय

काव्य कुसुमाकर पुस्तक का कवि परिचय
_______________________________

प्रकृति में होने वाली घटनाएं, सतत् चलने वाली घटनाएं है । नदियों का बहना ,फूलों का खिलना, मेधों का गर्जन सभी प्रकृति की ऐसी संरचना है,  जो सृष्टि को नहीं अपितु कवि को भी रचता है । कवि इसके कोमल हृदय की कोमलता से भाव-विभोर हो उठता है तथा इसका मानवीकरण कर समाज में इसको उचित स्थान दिलाता है । चर-अचर की अनूठी भाव-भंगिमा का रेखांकन ही कवि और कविता का रचनात्मक उद्देश्य होता है । साहित्य समाज का दर्पण है तो कवि उस दर्पण में पडने वाली छाया है । कविता का सफर कवि के अनुपम अनुभवों से होकर पाठक के हृदय तक पहुँचता है । साहित्य तो मानव सत्ता का अध्ययन है ।
                              यहाँ हम बात कुछ कवियों की करें तो उसकी शुरूआत मैं अज्ञेय से करना चाहूँगा क्योंकि यह पुस्तक 'तार सप्तक' की याद दिलाती है । अज्ञेय ने तार सप्तक का संपादन कर हिन्दी काव्य साहित्य में एक नया अध्याय का शुभारंभ किया था । तार सप्तक सात कवियों का एक समागम स्थल है । जहां कवियों का विकास अपनी-अपनी अलग दिशा में हुआ है । अज्ञेय जी द्वारा तार सप्तक का अंतिम अथवा चौथा संपादन सन् 1976ई॰ में किया गया था । पुनः तार सप्तक की कड़ी में जाने अनजाने यह पुस्तक अर्थात्  काव्य कुसुमाकर भी तार सप्तक की कड़ी में जुड़ी नजर आती है । सात कवियों द्वारा रचित पाँचवाँ तार सप्तक सामने आया,  जिसमें चार कवि और तीन कवयित्री शामिल हैं ।इन कवियों का कविता का शिल्प, रचना विन्यास सहज और सरस है जिसमें पाठक सहज ही कविता की गहराइयों में समा जाता है । 
                जहां हमारे अग्रज कवि रामलखन विधार्थी कविताओं में अपनी बात मुखर होकर करते हैं । साथ ही वह समाज की समस्याओं का ध्यान अपने काव्य कौशल के न्यारेपन के कारण आकृष्ट करते हैं ।
                वहीं शोभनाथ धायल जिनका काव्य संस्कार पुरानी प्रवतियों को ओढ़ तुलसीदास, मतिराम, केशव आदि कवियों की याद दिलाता है । घायल की कविताओं में हाशिए पर के लोगों का दर्द मिलता है ।
           निरंजन कुमार निर्भय सामाजिक बदलाव के लिए सामाजिक कुरीतियों से लोहा लेते हैं ।निर्भय की कविताएं देखने समझने तक नहीं अपितु उनके अनुभव और व्यवहार को भी संचालित करती है ।
            अभिषेक कुमार अभ्यागत एक युवा कवि हैं तथा उनकी कविताओं में प्रकृति स्नेह ही नहीं मातृभाषा हिन्दी और माँ के लिए भी उतना ही स्नेह है जितना एक मजदूर के लिए है । उनकी कविता की पहचान भाषा के व्याकरण से नहीं जीवन के व्याकरण से होती है । इनकी रचनाधर्मिता मानवीय मूल्यों का जीवट चित्र है ।
             बबली कुमारी एक ऐसी कवयित्री है जो अपनी कविताओं में बोलतीं है  वो वेवाकी से अपने चारों ओर व्याप्त भ्रष्टाचार ,दुर्व्यवहार ,नारी उत्पीड़न आदि के विरुद्ध उनके न्याय और सुधार की पुरजोर वकालत करतीं हैं । वह पुरे देश में अमन-शांति के लिए एक नया बदलाव लाना चाहती है ।
                       पंखुरी सिन्हा का धुमक्ड साहित्य सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त एक नये आकाश की आकांक्षा लिए पुराने प्रतिमानों को तोड़ नूतन प्रतिमान गढती है  उनका काव्य दर्शन बहुत व्यापक होने के साथ-साथ परिमार्जित भी दिखाई पड़ता है ।
                       किरण यादव उन कवयित्रियों में है जिनका काव्य साहित्य नारी समाज की दुर्दशा का परिसंस्कार करती नजर आती है ।उनकी कविता नारी उत्थान के लिए है । वह अपनी कविताओं में नारी की प्रत्येक पीड़ा प्रत्येक सुख को परिलक्षित कर के चलती हैं ।

संयुक्त काव्य संग्रह 'काव्य कुसुमाकर' मेंसात कवियों ने अपनी-अपनी काव्य शैली को अलग-अलग अंदाज में एक ही थाल में विविध रंगों से सुशोभित किया है । यदि हम साहित्य की दृष्टि से अवलोकन करें तो यह काव्य जीवन के प्रत्येक दशा स्थिति को इस रूप में व्यक्त करता है । मानों वह हमारे जीवन की घटित घटना है । कला की दृष्टि से यह पुस्तक आन्तरिक उद्दवेगों को बाहर निकाल कर मन में नयी स्फूर्ति के साथ-साथ उत्साह और उमंग का संचार भरता है तथा पाठक को अपनी ओर आकृष्ट करता है ।

          
                          


हिन्दी काव्य धारा का सहज सरस समकोण कवि - बनाफर चन्द्र

#पुस्तक #समीक्षा
हिन्दी काव्य धारा का सहज सरस समकोण कवि -  बनाफर चन्द्र 
____________________________________

मैं हवा में नहीं 
ज़मीन पर रहता हूँ 
लेकिन नज़र ज़मीन से आकाश तक 
होती है 
इस आपाधापी 
और जीने मरने की रफ्तार में 
टिकाये हुए हूँ अभी तक पाँव  ।

बनाफर चन्द्र (1950-2017) का परिचय आज भले हीं स्मृति शेष कवियों में होना सुनिश्चित हो चुका है । पर उनका हिन्दी साहित्य से यूँ चले जाना यथोचित ही दुःख की बात है । उनका गुजरना मात्र दैहिक ही था, उनके साहित्य का गुजरना यह कहना मानों उनके साहित्य के साथ अन्याय करने जैसा है । देह तो नश्वर है, पंचभूत है । इसका अंत किसी कवि की कविता का अंत कदाचित नहीं हो सकता । कवि अपनी रचना-धर्मिता के कारण कभी नहीं मरता बल्कि वह अमरत्व को प्राप्त होता है । बनाफर चन्द्र का काव्य-संस्कार देशज होने के साथ-साथ रचना के धरातल पर तथा रचना की कसौटी पर पूर्णतः खरा उतरते दिखाई पड़ता है । कविता बहुत पारदर्शी विधा है । केवल लिख देने मात्र से कवि होना होता तो अनेक लोग कवि हो गए होते । विषय वस्तु और विचार की शुद्धता का दुर्गामी दृष्टि रखने वाला न्याय का अनुचर जिसमें कथन की अनूठी भाव-भंगिमा का अनुपम आदर्श विधमान हो वही कवि है तथा उसके शब्द कविता है  ।
                           बनाफर चन्द्र कथा से कविता, कविता से अनुगूँज होती गाँव घर, धूल, धुआँ और आँधी, विरसा प्रेत,मिट्टी की खुशबू, तुम माँ हो जैसी काव्य संरचना द्वारा रूचिबोध की सीमा में संसार के एकान्तवास से खींचकर हमें समाजिक बनाती है तथा बेगाने एवं कठोर समय की सच्चाईयों का पर्दाफाश भी करती है। बनाफर चन्द्र की जो कविता-संग्रह मुझे पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ वह उनकी ताजातरीन एवं आखिरी काव्य-संग्रह 'कविता का वसंत' शीर्षक से तथा त्रिवेणी प्रकाशन सुभाष नगर डेहरी से प्रकाशित है, जो उन्होंने मुझे हस्तगत कर सस्नेह भेंट की थी। हिन्दी काव्य-साहित्य में आख्यान की धुरी अर्थात् उन प्रतिबिंबों को जिनसे हमारा समाज आहत है, विभाजित है, उन्हें धुरीहीन बना देने की जो आकुलता जैसा साहस बनाफर चन्द्र की कविताओं में दिखता है। इस दृष्टि से उन्हें हिन्दी काव्य-संरचना का अग्रदूत कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनकी कविताएँ अपनी रचना-विन्यास में प्रगीतधर्मी है। इनकी रचनाएँ व्यक्ति तल को छुता एक अनगढ़ साय की भाँति संबल बनकर हमें पथ-प्रस्त करती दिखाई पड़ती है  । वह समकालीन कवि होते हुए वयक्तिमान को न्यारेपन के कारण आकृष्ट करते हैं । धारा एवं प्रवाह से अलग एक नयी राह खोज निकालने में सफल नज़र आते हैं । उनकी कविता अतुकांत की राह पर चलकर जीवन के मर्म को स्पर्श करती है । 'बच्चे की नींद', 'ज़मीन', 'फिदरत', 'मेहनती हाथों की हथेली पर', 'घर', इनकी प्रमुख कविताएँ है जो 'कविता का वसंत' काव्य-संग्रह में संकलित है । वे लिखते हैं  -

'जो पक रही है पतीली में
वह खिचड़ी नहीं है 
जो सिक रही है तावे पर 
वह रोटी नहीं है 
एक ख्याल है एक विचार है  ।'

बनाफर चन्द्र जी अपनी इस कविता के माध्यम से अपने विचारों का जो स्थान दिया है । वह सत्य हीं खिचड़ी नहीं है, ना हीं रोटी है । वह मर्माहत है समाज के उस वर्ग के हाथों जो धनिक तो है, पर हृदयहीन है । उसे किसी की भूख और गरीबी से कोई सरोकार नहीं है । बच्चा भूखे पेट माँ की गोद में कुलबुलाते सो जाता है, चूल्हे की ठंडी राख देखते-देखते । वह संवेदना व्यक्त करने के स्थान पर अट्टहास करता है, उसकी दारूण दशा पर । यह देख कवि की कविता धरातल पर रखी नज़र आती है । बनाफर चन्द्र अपनी कविताओं में जो चित्रण प्रस्तुत करते हैं, वह यर्थात् की ज़मीन पर खिंची गई है । कल्पणिक कथा को माध्यम रूप देकर मानव मन की वेदना और हर्ष को रेखांकित करती है तथा हृदय को छुता है । जिसका रेखांकन ही कविता का रचनात्मक उद्देश्य है । वह अपने विचारों का प्रस्तुतिकरण जिस भाॅति कविता में करते हैं, उनका शब्द-शिल्प, देखने-समझने के तरीके को ही नहीं उनके अनुभव व व्यवहार के तरीके को भी संचालित करती है । जितने सहज और सरल तरीके से वह अपनी बात कह देते हैं, दरअसल उतनी सरल है नहीं । सामान्य अर्थों में सरलता और आडंबरहीनता धारण कर हर तरह के रचाव-बनाव से संयुक्त उनकी रचना अकविता के दलदल से हिन्दी कविता को बाहर निकालती है । वह समकोण द्रष्टा वाले ऐसे जनकवि हैं, जिसकी आलोचना अपनी निष्पक्षता के कारण आलोचक को कोई स्थान नहीं देता है ।                                राजनीतिक चेतना से सामाजिक बदलाव तक, मानव जाति से प्रेम और सामाजिक मूल्यों की सर्वोपरिता तक वह समरूपता धारण किए सामाजिक चेतना के हुंकार हैं ।
                        उनकी एक कविता मेरे भीतर प्रश्नों का भवर-जाल बुन देती है और मैं उन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए गोते लगाने लगता हूँ । वह प्रश्न मुझे उद्देलित करते हैं सोचने पर विवश करती है । कविता अपने गहरे अर्थों को समेटे भूत, भविष्य और वर्तमान के चित्र जो उकेरे हुए है । वह साधारण प्रश्न नहीं है । बुद्धिजन का प्रश्न है । हमारी सभ्यता, संस्कृति, संस्कारों की आत्म-विवेचन का प्रश्न है । हमारे उत्तरोत्तर विकास और ह्रास का प्रश्न है । यह हमारे जीवन से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल है । कवि अपनी कविता में कहता है  -

' पाताल में 
लग रहें हैं फल
आकाश में 
उगाई जा रही है सब्जियाँ
गमले में 
बोये जा रहे हैं धान गेहूँ
मटर टमाटर चना और फूल '

                  बनाफर चन्द्र एक छोटे से कस्बे बिहार प्रांत के रोहतास जिले के श्री रामपुर से निकलकर मध्य प्रदेश के भोपाल भेल में सेवारत होने के उपरांत हिन्दी साहित्य की उर्वर खेती करते हुए अखिल भारतीय दिव्य सम्मान और पुरस्कार 2015, रेणु सम्मान,  ज्योतिबा फूले सम्मान,  तुलसी सम्मान,  इकावन हजार रूपये का भेल कार्पोरेट पुरस्कार अर्जित किया । इतना ही नहीं साहित्यिक उपलब्धियों के आधार पर अन्य कवि अथवा लेखकों का उत्साह वर्धन भी करते रहे हैं । इस उत्साह वर्धन की कड़ी में बिहार प्रांत के रोहतास जिले के सोन नद के तट पर बसा शहर डेहरी-ऑन-सोन के प्रख्यात भोजपुरी और हिन्दी के मूर्धन्य एवं यशस्वी कवि, कहानीकार, नाटककार एवं उपन्यासकार राम लखन 'विधार्थी' को अपने देहावसान के दो दिन पूर्व साहित्य संगम संस्थान द्वारा एक साहित्यिक गोष्ठी तथा आयोजन में पाँच हजार रुपये का नगद धन राशि देकर उनके साहित्यिक जीवन की मंगल कामना करते हुए उनका उत्साह वर्धन किया । 
बनाफर चन्द्र जी की रचना ग्राम के साहित्यिक कृत्तियों में बीता हुआ कल, सवालों के बीच,  काला पंछी,  धारा,  ज़मीन,  बस्ती और अंधेरा,  अधूरा सफ़र (उपन्यास), पापा! तुम पागल नहीं हो, अपना देश,  मटमैला आकाश (कहानी संग्रह), सच के आगे भाग- 1,2,3 (आत्मकथात्मक), सहर के लिए,  चाँद सूरज (गज़ल संग्रह), उसकी डायरी (कहानी संग्रह) तथा कविता का वसंत प्रमुख है  ।


● अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
       पुस्तक समीक्षक
    डेहरी-ऑन-सोन, रोहतास बिहार ।




Tuesday, June 02, 2020

कविता : दीये की आग

"दीये की आग", को प्रतिलिपि पर पढ़ें : https://hindi.pratilipi.com/story/mc28ll01xuwl?utm_source=android&utm_campaign=content_share भारतीय भाषाओमें अनगिनत रचनाएं पढ़ें, लिखें और सुनें, बिलकुल निःशुल्क!

Friday, January 10, 2020

कवि : अभिषेक कुमार 'अभ्यागत' की कविता : बनारस

                                     बनारस



पूछता है
मणिकर्णिका घाट
का पानी
पूछती है
दशाश्वमेध घाट की सीढियाँ
पूछता है काशी का शंखनाद,
पूछती है
बाबा विश्वनाथ मंदिर की
ऊँची - ऊँची स्वर्ण गुम्बदें
घण्टों की टन - टन
संध्या - आरती का धूप - दीप
असंख्य मोक्ष प्राप्त आत्माएँ,
सकरी - आड़ी - तिरछी
बनारस की गलियों से
उसकी, ऊँची - ऊँची अट्टालिकाओं से
कबीर क्यूँ कूच कर गए ?
अपनी फकीरी का झोला उठाए
मोक्षदायिनी नगरी बनारस से
और जा बसे
किंवदंतियों की नगरी
मगहर में।
बनारस हाँ-हाँ बनारस
शिव की नगरी बनारस
कवि केदारनाथ सिंह की कविता वाला
एक टाँग पर खड़ा बनारस ।


                     - अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
                     युवा कवि, कथाकार एवं नाटककार
                     न्यू एरिया, (काली मंदिर गली)
                    डालमियानगर, रोहतास, (बिहार) 821305