Monday, December 30, 2019

कवि : अभिषेक कुमार 'अभ्यागत' की कविता : माँ [ साभार:काव्य कुसुमाकर (संयुक्त काव्य संग्रह) से]

     अभिषेक कुमार 'अभ्यागत' की कविता ' माँ  ' साभार -  काव्य कुसुमाकर (संयुक्त काव्य संग्रह),प्रकाशक - त्रिवेणी प्रकाशन सुभाष नगर, डेहरी, रोहतास, प्रकाशन वर्ष  - 2018, मूल्य  - 105₹


                                    माँ
                                -----------

बादलों के पार, दूर कहीं दूर
निर्जन, एकान्त,अनन्त पथ पर
'माँ' तुम गईं कहाँ  ?
ना चिट्ठी ना संदेश
तोड़ मोह-पाश वात्सल्य का
किस पथ पर, किस दिशा में
हाथ छुड़ा, हो गई ओझल
माँ, तू मेरी स्मृतियों में
सदा बसी रहेगी
तुम्हारी स्मृतियों का
रेखाचित्र, मेरे दृगों में
बार-बार उभर आता है
और, मैं अतीत के वातायन से
झाँकने लग जाता हूँ
तो, तुम सामने खड़ी नजर आती हो
काश  ! माँ एक बार
बस एक बार लौट आती
कसक बस इतनी है दिल में
तुम्हे देख लेता, एक बार फिर से
जबकि, मैं यह जानता हूँ
तू, अब न आएगी
किसी के बुलाये
पर, तेरी यादें बार-बार आएँगी ।


                      - अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
                        युवा कवि, कथाकार एंव नाटककार
                         डेहरी आन सोन, रोहतास (बिहार)


कवि : अभिषेक कुमार 'अभ्यागत' की कविता : धर्म के आक़ा

                                 धर्म के आक़ा
                             


कठमुल्ला हो या पंडा
नाम बदल लेने से
चरित्र नहीं बदलता
ये धर्म के रसूख़दार हैं
धर्म की कट्टरता का लिहाफ़ ओढ़ते हैं
और, अपने आचरण के दोहरेपन से
परम्परा और संस्कृति का गुण गान गाते हैं
और, हमारी शिराओं में
शनैः - शनैः भरते जाते हैं दुराग्रह
ताकि, वह उच्छृंखल हो सकें
हमारी बौद्धिक और वैचारिक चेतना को
कैद करने के लिए
और, उसमें समाहित कर सके
सम्प्रदायिक विद्वेष और उग्रवाद
ताकि, हम सोचने और जीने के प्रश्न पर
अपने ही मध्य
एक दरार, एक खाई
बनाये रख सकें
और वह, काठ के मनकों की माला फेरते हुए
कहला सकें धर्म के आक़ा ।

                       - अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
                       युवा कवि, कथाकार एंव नाटककार
                        डेहरी आन सोन, रोहतास (बिहार)


Sunday, August 25, 2019

यर्थाथ और आदर्श का एक वेवाक चित्रण - " कलम बोलती है "/ एक पुस्तक समीक्षा/ लेखक - निरंजन कुमार 'निर्भय' ।

निरंजन कुमार 'निर्भय' एक ऐसे शब्द शिल्पी, क्रांतिधर्मी कवि है, जो अपनी कलम से आजाद भारत की ज्वलंत समस्याओं का वेवाक चित्रण करते नजर आते हैं । वह अपने नाम के अनुरूप अपने काव्य संग्रह "कलम बोलती है" ( त्रिवेणी प्रकाशन, डेहरी आन सोन, रोहतास, बिहार, मूल्य 100 ₹ )   में भी निर्भय ही दिखाई पड़ते है । बड़ी ही निर्भीकता से मानव - मन और व्याप्त समाज की समस्याओं का सजीव चित्रण किया है । मुख्यतः कवि बनने के लिए उबड़ - खाबड़ , ऊँच  - नीच, टेढ़े - मेढ़े, कभी सुखा तो कभी दलदली रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है । कवि इन्हीं रास्तों से अपने जीवन में संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता है, और अपने संधर्ष के  अनुभवों को बड़ी ही सरलता के साथ शब्दों का जामा पहनाकर एक मजबूत और भड़कीली इमारत खड़ा करता है । जिसके भीतर समाज के कई जटिल से जटिलतम समस्याएं जैसे - सामाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक और धार्मिक प्रश्नों का हल खोज निकालने का हमे रास्ता दिखलाता है । निर्भय जी वह कवि है जो किसी भी प्रश्नों से भागते नहीं है और ना ही वह प्रश्नों से मुँह फेरकर कोई कायरता दिखलाने जैसा कार्य करते हैं ,बल्कि वह रचनाओं में इन प्रश्नों से मात्र लोहा ही नहीं लेते है । वह तो उसका उत्तर पाने की कोशिश में अपनी ऊर्जा खपाते नजर आते हैं । कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है । यह उक्ति " कलम बोलती है " में पूर्णतः चरितार्थ दिखती है ।
                                   निर्भय जी की पुस्तक कलम बोलती है में मैंने उनक लिखा पुरोवाक् पढ़ा । जिस तरह सृष्टिकर्त्ता  की रचनाओं को इन्होंने अदभुत, विचित्र और आनन्दायक बताया  है । ठीक वैसे ही  निर्भय जी कहते है कि यह पूरा विश्व ही मेरा घर है । इससे इनके हृदय का विशाल रूप रेखा का पता चलता है ।कविवर सुमित्रा नंदन पन्त की पंक्तियों के माध्यम से निर्भय जी स्वयं को वियोगी कवि की संज्ञा देते हैं , जबकि मैं तो इनके काव्य संग्रह को पढते ही वियोगी कवि कहने लगा हूँ ,और उनकी रचनाओं से सत्य भी यही दृष्टिगोचर  होता है ।
' काशी का कबीर ' इस कविता के माध्यम से बड़ी ही सहजता से धर्म के अलमबरदारों पर कुठार अधात किया है और बताया है कि किस प्रकार धर्म का वितंडा खड़ा करने वाले धर्म का मर्म नहीं समझते है । वह समाज को केवल भ्रम के जाल में घुमाते रहते है । संत कबीर के माध्यम से कवि कहना चाहता है कि धर्म का मर्म समझने वाले पाखण्ड नहीं फैलाते बल्कि पाखण्ड को खण्ड - खण्ड  कर धर्म का सच्चा स्वरूप समाज को दिखलाना चाहते हैं । आदमी की जाति आदमियता होती है और उसका धर्म सम्पूर्ण संसार के लिए किया गया कर्म है ।
                        इस कवि की कविता हमारे अंतर्मन को झकझोर देती है , लगता है कवि समाज की समस्याओं से इतना आहत है कि पूरे समाज को वह बदल देना चाहता है । वह नहीं चाहता है; संसार का कोई भी व्यक्ति भुखमरी, बेरोजगारी ,और अशिक्षा का दंश झेले । वह समाज को एक आदर्श रूप में देखना चाहता है । वह हमारे अंतर्मन को तो झकझोरता ही है साथ- ही - साथ बाहरी समस्याओं से लड़ने के लिए भी उद्देलित करता है । द्रष्टव्य है कवि की चंद पंक्तियाँ -
                            " जबतक विचारों का मंथन कर
                               दृष्टि साफ नहीं करोगे
                                भीतर के शैतान को
                                 पूरी तरह
                                 पराजित कर बाहर के
                              शैतान से नहीं लड़गे  । "
  पुस्तक के भीतर की एक  - एक रचना प्याज़ के छिलके की भाँति है,  जो परत - दर -परत जीवन का एक नया संदेश लिए बैठी है । जितनी ही परत उतरती है, उतना ही जीवन को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण प्राप्त होता है । चाहे वह गज़ल हो या गीत, चाहे नवगीत हो या मुक्त छंद की कविता । सभी रचनाएँ जीवन में एक नये आयाम का द्वार खोलती है । "कलम की नोक " कविता में कलम को जहाँ डराने वाले हैं, वहीं दूसरी तरफ कलम से थर्राने वाले भी हैं । वह तो केवल स्वांग करते हैं तथा कलम को स्वयं से कम आकते हैं ।कलम का भय उन्हें भी सताता है । कलम एक सिपाही की भाँति अपने विरोधियों का दमन भी करती है,  क्योंकि कलम अंतर्मन की आवाज़ है और इसी आवाज़ की हुंकार हैं, कवि निरंजन कुमार निर्भय । इनकी कविताओं में एक परिवर्तन की बयार बह रही है , जो समाज की सभी विपदाओं को अपनी तूफानी वेग में बहा ले जाने को आतुर है और समाज में अमन - शांति स्थापित करना चाहती है ।
जिस प्रकार हीरे की परख एक जौहरी ही जानता है ।वैसे ही साहित्य की परख एक साहित्यकार ही जानता है । यदि " कलम बोलती है " काव्य संकलन प्रकाशित न हुई होती तो ना मैं काव्य पढ़ता और ना ही इसके माध्यम से सामाजिक परिवर्तन का हिस्सा ही बन पाता और ना ही समालोचना लिखने के लिए विवश हो पाता । संपादक ने जिस प्रकार कवि के बिंबों को समझकर जो यथोचित तथा न्यायोचित स्थान दिया है  , तथा प्रकाशन के माध्यम से " कलम बोलती है " का जिस प्रकार प्रकाशन किया है । वह निश्चय ही सराहनीय है । पाठक मेरी समीक्षा को पढ़ने के बाद इस काव्य संग्रह को अवश्य ही पढ़ना चाहेंगे ।


                      - अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
                             ( पुस्तक समीक्षक )
                         डेहरी आन सोन, रोहतास,  (बिहार)
                 

Monday, August 12, 2019

सावन की पहली बूँद/ यह कविता सावन की रिमझिम फुहारों में आपके मन को भीगा देगी

सावन की पहली बूँद गिरी,
सुधा बनकर,
चटकी,
कली,
डालों पर,
इंद्रधनुष बनकर  !

काले नभ की किरणें;
गरजकर कहती ,
उषा की लाली की;
एक ना सुनती ,
अपने साथ निरंतर लेकर बरसती ,
समृद्धि और बदहाली ।

थोड़ा नाद ले,
थोड़ा हिम ले,
थोड़ी सुरभि ले,
थोड़ा धूप-धाव ले,
एक साथ बरसती दामन में-
थोड़ा-थोड़ा भरकर  !

सावन की पहली बूँद गिरी,
सुधा बनकर,
चटकी,
कली,
डालों पर,
इंद्रधनुष बनकर  !

                        - अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
                          डेहरी आन सोन, रोहतास, (बिहार)

वही देश तो मेरा है/wahi desh to mera hai/ एक ऐसी कविता जो अपने देश अपनी माटी को समर्पित है ।

स्वाधीनता की सोंधी महक
जिस माटी में है
आशा की
अवतीत किरणें
साफा बाँधकर आती हैं
मन का अलख जगाने जहाँ
वही देश तो मेरा है ।

हिमालय उदात्त
होकर जहाँ
नदियों को बेटी
कह पुकारता
भाँति-भाँति के
पलाश,
हरसिंगार,
कपूर,
आदि
सुशोभित हैं
अदिति रूप में
लेकर अविरल भाव
ऐसी छवि प्रकृति की मुखरित है जहाँ
वही देश तो मेरा है ।

बोली में विविधता
है, रक्त जहाँ का लाल
हर घर में
रहता है
एक सिपाही
आत्मा विश्वास से भरा
मर्यादा पुरुषोत्तम सा
अपनी
"लौ"
में जलता हुआ
सिकन्दर जैसा विश्व विजेता भी हारा जहाँ
वही देश तो मेरा है ।

                - अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
                    डेहरी आन सोन, रोहतास,( बिहार )

Sunday, August 11, 2019

दोस्ती/ Dosti यह कविता हमेशा हमे दोस्तों की याद दिलाएगी

देखते ही देखते,
हवाओं सा उड गय,
कभी जो हमने साथ;
बिताए थे, दोस्तों के संग ।
वो मस्ती,
वो रंग,
वो उमंग,
आज वह हवाएं
मौन दिशा से उड़ कर,
उन दोस्तों की छवि गंध लिए;
मेरे चित्त को महकाने आयी है,
उनकी यादों की बरसात लिए,
उमड़ी है, मेरे अंतर्मन को भिगोने
और,  मैं भीगकर मानों
अपनी दोस्ती का हाथ थामें,
अपने दोस्तों के साथ चलरहा  हूँ ।

                - अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
                   डेहरी आन सोन, रोहतास, (बिहार)

अब न होगें पत्थर बाज //कश्मीर के वर्त्तमान स्थिति को बयां करती कविता

आज पूरे फ़लक पर है चाँद, 
कोई इस चाँदनी की तपन में, 
तप रहा है, तो कोई;
इस चाँदनी में सराबोर हुआ है ।

टूट गया तीन सौ सत्तर का किला, 
ढ़ह गयी, पैतीस - 'ए' की दीवारें 
काले धुएँ से अब तक;
भरा था जो आकाश,
वह धुआँ आज छट गया है,
इतिहास ही नहीं- 
पूरा भूगोल बदल गया है ।

एक झंडा, एक नारा, एक हुआ;
हमारे संसद का संविधान,
अब ना होगें पत्थर बाज,
ना होगें, जम्हूरियत के दुश्मन,
मुख्य धारा से जुड़ेगा 
अब हर एक कश्मीरी,
हर किसी की होगी , अपनी एक पहचान ।

                           - अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
                              डेहरी आन सोन, रोहतास (बिहार)

Saturday, August 10, 2019

दलित चेतना का विराट चित्र- हाशिए का चाँद/ एक पुस्तक समीक्षा/ पुस्तक लेखक - डाॅ . हरेराम सिंह

            " कब तक रहेगा ब्राह्मणों का कब्जा 
               इस समाज पर 
                कब समाज मुक्त होगा 
                उनकी मुट्ठी से 
                कब उन्मुक्त हो सभी सांसे लेंगे 
                 गैर ब्राह्मण 
                 कब हसेंगे  ? "

डाॅ . हरेराम सिंह की इस छोटी सी कविता में, जिसे उनके ताजातरीन कविता संग्रह 'हाशिए का चाँद'( किशोर_विधा_निकेतन_प्रकाशन, वाराणसी, मूल्य 400 ₹) लगभग कवि के बुनियादी जीवन के यथार्थ और तल्ख अनुभव व व्यवहार को दर्शाता है, जो कवि की विश्व दृष्टि यानी समाज में घटित घटनाओं का एक विविध प्रपत्र मात्र ही नहीं; बल्कि जितने सरल तरीके से यह कविता जो बात कहती है, दरअसल उतनी सरल है नहीं । कवि अपने प्रतिबद्ध रचना-कर्म में मुख्यतः राजनीतिक-सामाजिक द्वंद को आलोचना त्मक दृष्टि से देखने और समझने की कोशिश की है । कवि कहता है- " 'हाशिए का चाँद ' विद्रूप समय को बेनकाब करती कविताओं का संग्रह मात्र नहीं है; बल्कि विद्रूप जीवन को सार्थक बनाने की कोशिश भी है ।" उसी क्रम में कुछ कविताएं कवि की उल्लेखनीय है - दलित स्त्री का प्रण , मेरे गाँव का भूटेली , उन्हे तो,  उपेक्षित , मुट्ठी भर धूप भी नहीं , मैंने मना किया था, पुनः वध होगा तुम्हारा आदि । 'हाशिए का चाँद ' कविता संग्रह पढ़ने के बाद 'विद्रूप ' शब्द का अर्थ आँखों के सामने स्पष्ट हो जाता है । कवि दलित चेतना की वकालत करता है क्योंकि दलित मनुष्य उतनी ही महत्वपूर्ण धारणा है जितनी कभी 'भक्त मनुष्य ' की धारणा थी । राम अवतार या कृष्ण अवतार हिन्दू धारणा के अनुसार जितने अवतार हुए सभी राजकुल में हुए हैं । लेकिन ऐसा कहा जाता है या ऐसी मान्यताएं हैं कि अगला महानायक का अवतार दलित कुल में होगा ।
                        धर्म और जाति की धारणा समीचीन में सामंती मानसिकता का घोतक बनकर दलित को अहि के समान निगलते जा रहा है । जो सामंती उद्दवेगों व बौद्धिक विमर्श की उपज है । हमे जियों और जिने दो अर्थात् आत्म-साक्षात्कार की आवश्यकता है ।प्रकृति की हम सभी संरचना है । पंचभूत को प्राप्त हम सभी को होना है । प्रारंभिक भारतीय इतिहास में एलेक्जेंडर,( सिकन्दर ) को कौन नहीं जानता है  ? वह पूरी दुनिया पर विजय कामना रखता था, पर अपनी मृत्यु पर विजय नहीं प्राप्त कर सका । मृत्यु ही शाश्वत है और जो शाश्वत है वही सत्य है । परंपरा , रीति-रिवाज, व्यक्तिगत विभाजन यह मानव निर्मित हमारी ही जड़े हैं जो हमे ही खोखली कर रही है । हमे सामाजिक विमर्श की आवश्यकता है । जाति, धर्म या प्रांत किसी मनुष्य की पहचान नहीं हो सकती है । मनुष्य की पहचान दया और कल्याण है । इस पहचान से भावनाएं और मानसिक अभिवृत्तियां नये रूप में परिभाषित और संघटित होती है । जातिवाद की सारी बौद्धिकता और दार्शनिकता मनुष्य -विरोधी है । उसकी मृत्यु में ही दलितार्थ का जन्म है । 
" सूअर की खोभाड़ बुहुराते / खदेरन डोम की बेटी मिल जाएगी पिअरिया / जो उम्र से नौजवान हो गई है ;मगर / चेहरे से नहीं झलकता बांकेपन/उसके होंठ पर लिपस्टिक की जगह/दिखता है सदैव उदासी ।" हमारे समाज में जब-जब साम्राज्यवाद का दखल और दबाब बढ़ा है तब-तब कवियों ने अपने अंतर्मन के संवेगो से साहित्य की भीतरी दुनिया के माध्यम से बाहरी दुनिया की समीक्षा कर उपेक्षित समाज का परिसंस्कार करके समाज के नये मूल्य गढ़े हैं इस मूल्यहीन परिवेश में क्योंकि प्रत्येक कवि बनने वाला और उत्पन्न करने वाला कलाकार के पास कुछ प्रकृति तथा अपने कविता का उद्देश्य होता है । कवि अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हाशिए पर के लोगों की तुलना चाँद से की है । वह उनके विद्रूप जीवन को ग्रहण की भाँति देखता है । ग्रहण के समय चाँद का प्रकाश धूमिल पड जाता है पर ग्रहण का अंत होते ही वह अपनी शीतलता से सभी को अभिभूत कर देता है । ठीक उसी प्रकार समाज का एक तपका और है जो इसी चाँद की भाँति है,  जिस पर सामंती ग्रहण लगे है । यह ग्रहण हटते ही हाशिए वाले लोगों को मुख्य धारा में आने से उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा । क्योंकि उनमें ऊर्जा का विपुल भंडार हैं और वह हुनर के प्रदर्शन के लिए सज्ज है । किसी गीतकार ने अपने गीत में लिखा है - " कब तलक रहेगा यह अंधेरा/ किसके रोके रुका है सवेरा ।" 
                         'हाशिए का चाँद 'कवि की दृष्टि में समाज का वंचित तपका है जहाँ भी सामंती वर्चस्व किसी -न-किसी रूप में उपस्थित हो वहाँ समरूपता का कोई स्थान ही नहीं है । कवि समरूपता की स्थापना तथा वर्चस्व के निवारण की कोई युक्ति पर संकेत निर्देशित नहीं किया है । विद्रूप जीवन को सुभग बनाने की कोशिश में प्रगति-मार्ग की बांधाओं का समाधान अर्थात् सामंती ताकतों से रक्षा करने के लिए कला कौशल का विकास दलित वर्ग के भीतर इस भाँति नहीं किया है कि वे उनकी कुटिलता की पड़ताल अपने सीधेपन अथवा भोलेपन से कर सकें । वह उनको उद्देलित कर के युद्ध के मैदान में उतार देने को आकुल है, पर युद्ध कला के प्रशिक्षण में उन्हें प्रवीण नहीं बना पाया है । अपनी संपूर्ण कविता संकलन में कवि अपने आतंरिक कुशाग्र बुद्धि का परिचय देते हुए समाज के सम्मुख अग्रसूचित ( सवर्णों ) को उनके बौद्धिक और मानसिक अवगुणों को उजागर करते हुए उन्हे 21वीं सदी का विदूषक बताया है । कवि छोटे से गाँव करूप इंगलिश ( गोराडी ) के छोटे से किसान परिवार में जन्मा है वह बहुत ही नजदीक से दलित जाति की समस्याओं को देखा और जिया है । वह अपने इसी अनुभवों को कविता का रूप दिया है । कविता स्पष्ट करती है कि कवि दलित चेतना की मुखर स्वर है । स्वतंत्रता अधिनायकवाद में नहीं बल्कि समरूपता में निहित है । कवि सवर्णों के विरुद्ध दलित आन्दोलन का हिस्सा मात्र नहीं है ,अपितु आन्दोलन में अग्रिमपंक्ति में खड़ा नजर आता है । सामाजिक बदलाव का शंखनाद है डाॅ . हरेराम सिंह की कविताएं । वे कहते हैं- "अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले वीर होते हैं/ गरीब, बेसहारे, मासूम स्त्रियों पर हमला करने वाले कायर ।" परिवर्तन किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, वह तो एक विचार है और यह विचार हाशिए का चाँद पुस्तक में नजर आता है । कवि बहुत ही क्षुब्ध है मानव को मानव से ही घिनाने पर । वह क्षुब्ध होकर लिखता है- " देवस्थली क्यूँ छूत बन जाती है चमारों को भू छूने से  ? / भगवान क्यूँ अपवित्र हो जाते हैं अधूतों के मंदिर जाने से / ब्राह्मणों की जात क्यों चली जाती है इनके छुए पानी पीने से  ? / मेरा देश कैसा है लोगों  ? जो लिपटा है आज भी घिनाई के पंकों में ।"

                                   - अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
                                     ( पुस्तक समीक्षक  )
                              डेहरी आन सोन ,रोहतास ( बिहार)