Saturday, August 10, 2019

दलित चेतना का विराट चित्र- हाशिए का चाँद/ एक पुस्तक समीक्षा/ पुस्तक लेखक - डाॅ . हरेराम सिंह

            " कब तक रहेगा ब्राह्मणों का कब्जा 
               इस समाज पर 
                कब समाज मुक्त होगा 
                उनकी मुट्ठी से 
                कब उन्मुक्त हो सभी सांसे लेंगे 
                 गैर ब्राह्मण 
                 कब हसेंगे  ? "

डाॅ . हरेराम सिंह की इस छोटी सी कविता में, जिसे उनके ताजातरीन कविता संग्रह 'हाशिए का चाँद'( किशोर_विधा_निकेतन_प्रकाशन, वाराणसी, मूल्य 400 ₹) लगभग कवि के बुनियादी जीवन के यथार्थ और तल्ख अनुभव व व्यवहार को दर्शाता है, जो कवि की विश्व दृष्टि यानी समाज में घटित घटनाओं का एक विविध प्रपत्र मात्र ही नहीं; बल्कि जितने सरल तरीके से यह कविता जो बात कहती है, दरअसल उतनी सरल है नहीं । कवि अपने प्रतिबद्ध रचना-कर्म में मुख्यतः राजनीतिक-सामाजिक द्वंद को आलोचना त्मक दृष्टि से देखने और समझने की कोशिश की है । कवि कहता है- " 'हाशिए का चाँद ' विद्रूप समय को बेनकाब करती कविताओं का संग्रह मात्र नहीं है; बल्कि विद्रूप जीवन को सार्थक बनाने की कोशिश भी है ।" उसी क्रम में कुछ कविताएं कवि की उल्लेखनीय है - दलित स्त्री का प्रण , मेरे गाँव का भूटेली , उन्हे तो,  उपेक्षित , मुट्ठी भर धूप भी नहीं , मैंने मना किया था, पुनः वध होगा तुम्हारा आदि । 'हाशिए का चाँद ' कविता संग्रह पढ़ने के बाद 'विद्रूप ' शब्द का अर्थ आँखों के सामने स्पष्ट हो जाता है । कवि दलित चेतना की वकालत करता है क्योंकि दलित मनुष्य उतनी ही महत्वपूर्ण धारणा है जितनी कभी 'भक्त मनुष्य ' की धारणा थी । राम अवतार या कृष्ण अवतार हिन्दू धारणा के अनुसार जितने अवतार हुए सभी राजकुल में हुए हैं । लेकिन ऐसा कहा जाता है या ऐसी मान्यताएं हैं कि अगला महानायक का अवतार दलित कुल में होगा ।
                        धर्म और जाति की धारणा समीचीन में सामंती मानसिकता का घोतक बनकर दलित को अहि के समान निगलते जा रहा है । जो सामंती उद्दवेगों व बौद्धिक विमर्श की उपज है । हमे जियों और जिने दो अर्थात् आत्म-साक्षात्कार की आवश्यकता है ।प्रकृति की हम सभी संरचना है । पंचभूत को प्राप्त हम सभी को होना है । प्रारंभिक भारतीय इतिहास में एलेक्जेंडर,( सिकन्दर ) को कौन नहीं जानता है  ? वह पूरी दुनिया पर विजय कामना रखता था, पर अपनी मृत्यु पर विजय नहीं प्राप्त कर सका । मृत्यु ही शाश्वत है और जो शाश्वत है वही सत्य है । परंपरा , रीति-रिवाज, व्यक्तिगत विभाजन यह मानव निर्मित हमारी ही जड़े हैं जो हमे ही खोखली कर रही है । हमे सामाजिक विमर्श की आवश्यकता है । जाति, धर्म या प्रांत किसी मनुष्य की पहचान नहीं हो सकती है । मनुष्य की पहचान दया और कल्याण है । इस पहचान से भावनाएं और मानसिक अभिवृत्तियां नये रूप में परिभाषित और संघटित होती है । जातिवाद की सारी बौद्धिकता और दार्शनिकता मनुष्य -विरोधी है । उसकी मृत्यु में ही दलितार्थ का जन्म है । 
" सूअर की खोभाड़ बुहुराते / खदेरन डोम की बेटी मिल जाएगी पिअरिया / जो उम्र से नौजवान हो गई है ;मगर / चेहरे से नहीं झलकता बांकेपन/उसके होंठ पर लिपस्टिक की जगह/दिखता है सदैव उदासी ।" हमारे समाज में जब-जब साम्राज्यवाद का दखल और दबाब बढ़ा है तब-तब कवियों ने अपने अंतर्मन के संवेगो से साहित्य की भीतरी दुनिया के माध्यम से बाहरी दुनिया की समीक्षा कर उपेक्षित समाज का परिसंस्कार करके समाज के नये मूल्य गढ़े हैं इस मूल्यहीन परिवेश में क्योंकि प्रत्येक कवि बनने वाला और उत्पन्न करने वाला कलाकार के पास कुछ प्रकृति तथा अपने कविता का उद्देश्य होता है । कवि अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हाशिए पर के लोगों की तुलना चाँद से की है । वह उनके विद्रूप जीवन को ग्रहण की भाँति देखता है । ग्रहण के समय चाँद का प्रकाश धूमिल पड जाता है पर ग्रहण का अंत होते ही वह अपनी शीतलता से सभी को अभिभूत कर देता है । ठीक उसी प्रकार समाज का एक तपका और है जो इसी चाँद की भाँति है,  जिस पर सामंती ग्रहण लगे है । यह ग्रहण हटते ही हाशिए वाले लोगों को मुख्य धारा में आने से उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा । क्योंकि उनमें ऊर्जा का विपुल भंडार हैं और वह हुनर के प्रदर्शन के लिए सज्ज है । किसी गीतकार ने अपने गीत में लिखा है - " कब तलक रहेगा यह अंधेरा/ किसके रोके रुका है सवेरा ।" 
                         'हाशिए का चाँद 'कवि की दृष्टि में समाज का वंचित तपका है जहाँ भी सामंती वर्चस्व किसी -न-किसी रूप में उपस्थित हो वहाँ समरूपता का कोई स्थान ही नहीं है । कवि समरूपता की स्थापना तथा वर्चस्व के निवारण की कोई युक्ति पर संकेत निर्देशित नहीं किया है । विद्रूप जीवन को सुभग बनाने की कोशिश में प्रगति-मार्ग की बांधाओं का समाधान अर्थात् सामंती ताकतों से रक्षा करने के लिए कला कौशल का विकास दलित वर्ग के भीतर इस भाँति नहीं किया है कि वे उनकी कुटिलता की पड़ताल अपने सीधेपन अथवा भोलेपन से कर सकें । वह उनको उद्देलित कर के युद्ध के मैदान में उतार देने को आकुल है, पर युद्ध कला के प्रशिक्षण में उन्हें प्रवीण नहीं बना पाया है । अपनी संपूर्ण कविता संकलन में कवि अपने आतंरिक कुशाग्र बुद्धि का परिचय देते हुए समाज के सम्मुख अग्रसूचित ( सवर्णों ) को उनके बौद्धिक और मानसिक अवगुणों को उजागर करते हुए उन्हे 21वीं सदी का विदूषक बताया है । कवि छोटे से गाँव करूप इंगलिश ( गोराडी ) के छोटे से किसान परिवार में जन्मा है वह बहुत ही नजदीक से दलित जाति की समस्याओं को देखा और जिया है । वह अपने इसी अनुभवों को कविता का रूप दिया है । कविता स्पष्ट करती है कि कवि दलित चेतना की मुखर स्वर है । स्वतंत्रता अधिनायकवाद में नहीं बल्कि समरूपता में निहित है । कवि सवर्णों के विरुद्ध दलित आन्दोलन का हिस्सा मात्र नहीं है ,अपितु आन्दोलन में अग्रिमपंक्ति में खड़ा नजर आता है । सामाजिक बदलाव का शंखनाद है डाॅ . हरेराम सिंह की कविताएं । वे कहते हैं- "अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले वीर होते हैं/ गरीब, बेसहारे, मासूम स्त्रियों पर हमला करने वाले कायर ।" परिवर्तन किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, वह तो एक विचार है और यह विचार हाशिए का चाँद पुस्तक में नजर आता है । कवि बहुत ही क्षुब्ध है मानव को मानव से ही घिनाने पर । वह क्षुब्ध होकर लिखता है- " देवस्थली क्यूँ छूत बन जाती है चमारों को भू छूने से  ? / भगवान क्यूँ अपवित्र हो जाते हैं अधूतों के मंदिर जाने से / ब्राह्मणों की जात क्यों चली जाती है इनके छुए पानी पीने से  ? / मेरा देश कैसा है लोगों  ? जो लिपटा है आज भी घिनाई के पंकों में ।"

                                   - अभिषेक कुमार 'अभ्यागत'
                                     ( पुस्तक समीक्षक  )
                              डेहरी आन सोन ,रोहतास ( बिहार)


                      

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